आज 41 कॉमिक्स की पहली खेप मिली, डोगा और नागराज की. आज से 30 साल पुराना जीवन याद आया जब इन कॉमिक्स को पढ़ने के लिए कितना उत्साह हुआ करता था.
आर्थिक तंगी के कारण ख़रीद तो नहीं सकते थे, इसीलिए किराए से लेकर पढ़नी पड़तीं थीं. आज ₹3000 की कॉमिक्स ख़रीद लीं, उस समय किराए के 25 पैसे इकट्ठा करना मुश्किल होता था. 3-4 दोस्त 25- 25 पैसे मिलाकर कॉमिक्स किराए पर ले लेते थे 24 घंटे के लिए. फिर आपस में साझा करके पढ़ते रहते थे. एक ही कॉमिक्स कई बार पढ़ते थे. घर के पास एक कॉमिक्स पार्लर था जहाँ आधे किराए पर वहीं बैठकर कॉमिक्स पढ़ सकते थे.
कॉमिक्स पढ़ना यूँ न था कि स्कूल की कोई किताब पढ़नी हो बोझ समझकर, केवल पास होने के लिए. स्वाद लेकर पढ़ते थे, एक-एक चित्र को ध्यान से देखते थे. और कभी-कभी तो चित्र बनाते भी थे. कुछ कॉमिक्स के साथ स्टीकर आते थे, जो घर की अलमारियों और स्विचबोर्ड्स में लगाए जाते थे. इनमें सबसे ख़ास हुआ करता था चुंबक वाला स्टीकर जो कि कुछ महँगी कॉमिक्स के साथ ही मिलता था.
सालों बाद इन कॉमिक्स की कहानियाँ याद करके समझ आता है कि ये बचकानी नहीं थीं बल्कि कला और कल्पना से भरपूर थीं. हॉलीवुड में तो डीसी और मार्वल कॉमिक्स पर फिल्में बनाकर फिल्म निर्माताओं ने न केवल दर्शकों का जबरदस्त मनोरंजन किया है बल्कि बेहिसाब पैसा भी कमाया है. भारतीय कॉमिक्स के नायकों में भी जबरदस्त फिल्मी संभावना (cinematic potential) है. नागराज, ध्रुव, डोगा, भोकाल, राम-रहीम में थ्रिल कूट-कूट कर भरा है. साथ ही, हास्यपूर्ण मनोरंजन के लिए चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी की कहानियाँ बेजोड़ हैं. मुझे लगता है बॉलीवुड को इस तरफ़ गंभीरता से ध्यान देना चाहिए. बॉलीवुड ध्यान दे, न दे―वह तो वैसे भी मानसिक दिवालिया हो चुका है―लेकिन मैं अब इन कॉमिक्स का भरपूर मज़ा लूँगा.